शेयर करें
वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल की कलम से
पद्मश्री प्रीतम भरतवाण का जडवांन गीत हमारी उन परंपराओं को याद दिलाता है जिसे हम लगभग भूल गए हैं या भुलाने लगे हैं। हिमालयी क्षेत्र में हमारी संस्कृति में विविधता भी रही और फैलाव भी। इसलिए समय के साथ प्रीतम जी के साथ इस कला ये परंपरा को फिर से याद कराया जा रहा है तो कला और कलाकार दोनों उद्देश्य में सार्थक हो रहे हैं। प्रीतम जी और उनके साथियों ने इस जडवांन गीत के लिए उत्तराखंड के उस पुराने माहौल फिर से याद किया है। बदलती सभ्यता और रितिरिवाजों में बहुत कुछ बदल गया । इनमें ही जडवांन की वो रीत भी कहीं खो गई। इसलिए कहा जाता है कि जब कोई समाज अपनी चीजों को भूलता है तो कवि कलाकार सबसे पहले जागृत करता है। निश्चित प्रीतम भरतवाण जैसे कला मर्मज्ञों ने इसकी थाह ली है। बच्चे के मुंडन के समय की इन अनूठी सी रीत को जरा आप भी सुनिए देखिए। यह हमारे उत्तराखंड की झलक है। यह हमारी समृद्ध लोककला की बानगी है।
लोकसंगीत में प्रीतम जी रह रह कुछ नया लाते है और वो मन को भा जाता है। उत्तराखंड के जागरों को उन्होंने उस ऊंचाई तक पहुंचाया है कि पश्चिम देशों को इसको जानने की ललक हुई है । और दक्षिण भारत के फिल्म जगत ने जागरों की धुन को लहक को अपने गीत संगीत में समाहित करने की कोशिश की है। लेकिन जितना जागर पर उन्होंने लगन से काम किया उतना ही दूसरे लोक गीत संगीत और परंपराओं पर भी। उत्तराखंड के गांव कस्बों के अपने परिवेश को उन्होंने हमेशा याद रखा। उनके अनुरूप गीत बनाए और उसे गुनगुनाया। प्रीतम जी की आवाज में जो गीत आया वो उत्तराखंड की संस्कृति और विरासत की झलक दिखा गया।
About Post Author
Post Views:
28