Wednesday, July 9, 2025
Homeउत्तराखंडगढ़ कुमों – एक संभावना जगाती फिल्म - Sainyadham Express

गढ़ कुमों – एक संभावना जगाती फिल्म – Sainyadham Express

गढ़ कुमों – एक संभावना जगाती फिल्म

समीक्षक – जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’

उत्तराखंड की फिल्म इंडस्ट्री में आमतौर पर एक धारणा रही है कि इसके सीमित दर्शक हैं. लगभग सवा करोड़ की जनसँख्या में जिसमें एक अनुमान से 30% गढ़वाली, 30% कुमाउनी, 20% जौनसारी व शेष अन्य भाषा बोलने – जानने वाले लोग हैं. अगर कोई फिल्म गढ़वाली बोली भाषा में बनती है तो उसको 30% जनसँख्या के बहुत सीमित दर्शक ही देख पाते हैं. यही स्तिथि कुमाउनी फिल्म व अब जौनसारी के साथ भी कही जाती है. लेकिन इस बीच उत्तराखंड फिल्मों के सुप्रसिद्ध फिल्मकार अनुज जोशी एक फिल्म लेकर आये हैं जिसका नाम है “गढ़ कुमों”. यह फिल्म गढ़वाली, कुमाउनी व हिंदी भाषा की मिश्रित फिल्म है. यह फिल्म उत्तराखंड फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक नई संभावना लेकर आयी है, जिसे गढ़वाल व कुमाऊँ अंचल के दोनों दर्शक आसानी से समझ सकते हैं व फिल्म दर्शकों का दायरा बढाती है. इसी बात का इंतज़ार उत्तराखंड की फिल्म इंडस्ट्री लंबे समय से कर रही थी. गढ़ कुमों फिल्म की दूसरी विशेषता है कि यह गढ़वाली – कुमाउनी बोली भाषा के विमर्श को आमजन तक पहुँचाने का काम करती है.

electronics

अब बात करते हैं फिल्म की. फिल्म की कहानी बहुत सरल व सहज है. हल्द्वानी (कुमाऊँ) की रहने वाली प्रभा रावत (अंकिता परिहार) व देहरादून (गढ़वाल) के रहने वाले सुनील नेगी (संजू सिलोड़ी) दोनों युवा दिल्ली की किसी आई.टी. कंपनी में काम करते है. यहाँ सुनील कंपनी का मैनेजर है जो अपने कैरियर को लेकर बहुत संदीजा है. उसे अपने कैरियर के अलावा और कुछ दिखता नहीं है. प्रभा इस कंपनी को ज्वाइन करती है. समय के साथ प्रभा व सुनील की दोस्ती हो जाती है, प्रभा सुनील को चाहने लगती है. प्रभा एक दिन अपने मन की बात सुनील से कहती है की यह दोस्ती शादी में बदल जाये. लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा व कैरियर की बात कर सुनील तैयार नहीं होता. उधर प्रभा पर घरवालों का शादी को लेकर दबाब बढ़ता जाता है. प्रभा सुनील की बहुत मिन्नत करती है लेकिन सुनील पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. आखिरकार प्रभा गुस्से में नौकरी से त्यागपत्र देकर अपने घर चली जाती है.

चार साल गुजर जाते है. सुनील अपनी पुरानी कंपनी में ही काम करता रहता है, व प्रभा गोवा की किसी कंपनी में. एक दिन अचानक सुनील व प्रभा की मुलाक़ात इटारसी के रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में हो जाती है. दोनों की इस मुलाक़ात से पर्दा खुलने लग जाता है. प्रभा की सगाई तो हुई थी पर शादी नहीं हो सकी, दोनों अपने – अपने गिले शिकवे साझा करते हैं और शादी करने का निर्णय कर अपने – अपने घर पहुँच जाते हैं. घर पहुँच कर अब दूसरी परीक्षा इन्तजार कर रही होती है, वह है विरादरी से बाहर यानी गढ़वाली – कुमाउनी का मसला. खैर सुनील और प्रभा को अपने घरवालों को तैयार करने के लिए जो – जो भी करना पड़ता है वह सब इस फिल्म में है. गढ़वाली – कुमाउनी भाषा के चुटीले संवाद का मजा इस फिल्म में लिया जा सकता है.

गढ़ कुमों फिल्म के सभी कलाकारों का बेहतरीन अभिनय ने दर्शकों को बांधे रखा है. सुनील के पात्र में संजू सिलोड़ी का फ़िल्मी अभिनय एक नए मुकाम तक पहुंचा है. अभी तक की संजय सिलोड़ी की सभी फिल्मों के इतर इस फिल्म में संजू ने बेहतरीन अभिनय किया है. वह कहीं पर भी ओवर रिएक्ट करते नजर नहीं आये. बहुत सहज – सरल व जरुरत के हिसाब से, ठीक इसी तरह प्रभा की भूमिका में अंकिता परिहार ने भी अपने अभिनय से बहुत प्रभावित किया है. फिल्म के अन्य कलाकारों में सदैव की भांति राकेश गौड़ अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे. कुलमिलाकर कास्टिंग डाइरेक्टर के रूप में अभिषेक मैंदोला ने एक बेहतरीन कलाकारों की टीम फिल्म को दी है. फिल्म में सिर्फ एक ही गीत है व कुछ मुखड़े है जो फिल्म की जरुरत के हिसाब से ठीक लगते हैं. गीतों को कहानी के हिसाब से लिखने में गीतकार जोड़ी जीतेंद्र पंवार व गोपाल मठपाल सफल रहे, वहीँ मीना राणा, जीतेंद्र व अमित ने शानदार स्वरों में गीतों को गाया है. संगीतकार अमित वी. कपूर ने फिल्म की कहानी के अनुसार संगीत को बहुत सहज व सरल बनाया है जिसमें सौम्यता है.

तकनीकी रूप से फिल्म बेहतर है लेकिन कुछ कमजोर पक्ष है जिन पर ध्यान दिया जाता तो फिल्म उच्च पायदान को छू जाती. गढ़वाल के गांव को जौनसार के गांव में शूट करना बहुत अखरता है, भले ही जौनसार भी गढ़वाल का ही हिस्सा माना जाता है, फिर भी यह दर्शकों को डिस्कनेक्ट करता है. फिल्म का गीत चीड़ के जले जंगल में फिल्माने की क्या मजबूरी रही होगी जबकि गीत के बोल हरियाली की बात करते हैं, फिल्म में जब भी सुनील व प्रभा एक दुसरे के गांव घूमते हैं तो वहां गांव की नजाकत गायब है, ये सारे दृश्य जबरदस्ती व निपटाने जैसे लगे. होटल के कमरे को सुनील का कमरा दिखाना खलता है जहाँ सीन के पीछे बिजली के सौकेट पर चाभी लटकती नजर आती है, भले बाद में इसको फूल के बैच से ढक दिया गया हो, खटकता है. वहीँ सूखे जले जंगल में झुमेलो व चाचडी के दृश्य अनावश्यक व अवास्तविक लगते है.

फिल्म में संवाद फिल्म के मुख्य कलाकारों (संजू व अंकिता) के बीच की कैमेस्ट्री को कई बार बाधा पहुंचाते नजर आये. फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष इसकी कहानी को आज, याने 2025 के सन्दर्भ में दिखाना है, जबकि गढ़वाली, कुमाउनी, ब्राह्मण, राजपूत, व अन्य बाहरी जातियों मंु अब शादी विवाह को काफी मान्यता मिल चुकी है. फिल्म में लड़के व लड़की के परिवार बहुत उच्च शिक्षित व संपन्न व आधुनिक दिखाए गए है. जो दर्शकों को पचाने में मुश्किल करती है, व दर्शक डिस्कनेक्ट होता रहता है. आज के दौर के दो आई.टी. प्रोफेशनल की जब दोस्ती हो जाती है तो आप और तुम शब्द गायब हो जाते है. लेकिन बार – बार सुनील व प्रभा को चार साल की दोस्ती के बाद तुम शब्द का प्रयोग करना अवास्तविक लगता है. इसी तरह जब सुनील व प्रभा नौकरी के बाद अपने – अपने घर आते हैं, तो रिश्तों की वह गर्मी नजर नहीं आती, यहाँ फॉर्मेलिटी जैसी लगती है. ऐसा ही गांव जाने व परिवारों से मिलने के दृश्यों में देखा गया है.

उपरोक्त इन कुछ बातों से इतर एक दृश्य से दुसरे दृश्य में संवाद से लेकर अभिनय का जो शानदार मिश्रण या ट्राजिशन इस फिल्म में देखने को मिला वह निर्देशक के अनुभव को दर्शाता है. फिल्म शुरू में भले ही धीमी चाल से चलती है लेकिन अंत तक वह अपनी रफ़्तार पकड़ लेती है. फिल्म में इमोशन है, हाश्य – ब्यंग्य है व फिल्म उत्तराखंडी भाषा आन्दोलन को आगे बढ़ाने के साथ – साथ गढ़वाल व कुमाऊँ अंचलों के समाज को जोड़ने का काम करती है. फिल्म के निर्माता हरित अग्रवाल है, जिसे ख़ुशी सिने वर्ड के बैनर तले बनाया गया है. डी.ओ.पी. के रूप में हरीश नेगी व सहयोगी के रूप में राजेश रतूड़ी का शानदार फिल्मांकन फिल्म की जान है. फिल्म के एसोसिएट डाईरेक्टर हैं दीपक रावत. फिल्म को मस्कबीन स्टूडियो ने अपने यू ट्यूब चैंनल पर रिलीज किया है.

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments